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  • अंगारा या लौ

    १९८३ में, जब मैं कक्षा ९ में था तब मन के भावों को शंब्दों में बाँधने की चेष्टा की थी, उस समय कुछ कवितायें लिखी थीं. इन्ही में से एक कविता यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ. 

    ~नीरज 


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  • अंगारा या लौ

    १९८३ में, जब मैं कक्षा ९ में था तब मन के भावों को शंब्दों में बाँधने की चेष्टा की थी, उस समय कुछ कवितायें लिखी थीं. इन्ही में से एक कविता यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ. 

    ~नीरज 


    .......

    मानव एक गतिशील लौ है 
    जो कभी जलती है 
    दूसरों का पथ अवलोकित करने को 
    उन्हें बचाने को 
    – राह की ठोकरों से 

    जो कभी किसी अँधेरे दिल में जलती है 
    ज्ञान का सौम्य प्रकाश फैलाने को 
    ताकि दुसरे समझ सकें कि 
    ईश्वर क्या है 
    – त्याग क्या है 

    कभी कभी यह लौ 
    एक ऐसी चिंगारी में बदल जाती है 
    जो किसी मासूम के जीवन को 
    राख कर देने में सक्षम होती है 

    और किसी दिन ऐसा भी होता है 
    कि यह लौ - यह चिंगारी 
    रूप ले लेती है एक अंगार का 
    जो सुलगता है – 
    दूसरों को जलाने के लिए 

    जो ये शोला अस्तित्व में न आये 
    और सबको मिल सके 
    ज्ञान का सौम्य प्रकाश 
    और बच सकें 
    वो राह के पत्थरों से 

    यह मानव के हाथ में है 
    कि वो अंगारा बने या लौ 
    सोचो क्या चुनें 
    पतन की धूल 
    या उत्थान का शिखर 

    ~ नीरज गर्ग 

    रूड़की 
    १५-१२-१९८३

    • Date

      03-10-2023

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